समीक्षा : “उपन्यास ‘गेना लैया’ : डॉक्टर अमरेंद्र” – अरुण कुमार पासवान

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उपन्यास ‘गेना लैया’ : डॉक्टर अमरेंद्र
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जिसे आप जी जान से चाहते हैं,उसे किसी भी हाल में छोड़ना नहीं चाहते हैं,पर छोड़ना आप की विवशता हो जाती है,वह आप के दिल के बहुत पास रहने लगता है।फिर जब भी सुयोग आता है आप अपने अंतराल की सारी कसर पूरी करते देखे जा सकते हैं। गांव और ग्रामीण संस्कृति के साथ मेरा भी ऐसा ही संबंध है।तो जब गांव पहुंचने का अवसर मिलता है,ग्रामीण संस्कृति की बात होने लगती है,ग्रामीण बोलचाल,शब्द या नाम सुनाई या दिखाई दे जाता है,मन करता है उसी में डूब जाऊं,और जो खोया है उसे जितना पा सकता हूं पा लूं।गेना नाम पहले भी सुना है,डॉक्टर अमरेंद्र जी के ‘गेना’ के पन्नों से गुज़रा भी हूं,(अच्छा है कि अब उसमें से कुछ भु याद नहीं)पर जब इसका पी डी एफ एक नए प्रकाशन के रूप में अमरेंद्र जी से ही प्राप्त हुआ तो उसमें तैरने, उतराने को जी करता है,आराम से धीरे धीरे।(यह मेरे लिए इस समय एक नई कहानी है,जिसे पढ़ते हुए,दुहराने जैसा कोई अहसास नहीं है,तो जिज्ञासा रत्ती भर भी कम न होगी।)
नौकरी को मैं सदा मजबूरी मानता रहा हूं,रोटी के जुगाङ के लिए बस।यदि बिना नौकरी रोटी,कपड़ा मिल जाता तो शहर के पक्के मकान की चाहत तो कभी रही नहीं।आज भी मिट्टी का घर,फूस, खपड़ैल की छौनी की तस्वीर देखकर भी मन खुश हो जाता है।और अति हर्ष तो तब होता है,जब कोई लेखक किसी निरीह,किसी पीड़ित को केंद्र में रखकर कोई कथा गढ़ता है,क्योंकि लगता है मानवता अब भी जिंदा है।गेना जैसे चरित्र का विस्तार डॉक्टर अमरेंद्र जी का वही मानवतावाद है,जिससे खिंच जाना स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी।
कहानी पढ़ते हुए,अंत जानने से पहले ही मुझे लगा था,इस कहानी में अमरेंद्र जी बाइबिल के अर्तवान हो सकते हैं।हां,वही जो येशु के जन्म की जानकारी मिलने के बाद से ही उन्हें खोजने निकला,पर येशु की देह उससे मिलने से पहले ही सूली पर चढ़ा दी गई।ये बात और है कि अमरेंद्र जी अनेक बार उससे मिल चुके हैं,पर तब बिना खोजे वह मिल जाता था।जब गेना खोजने लायक हो गया,अमरेंद्र जी ने खोजना शुरू किया,तो फिर वह नहीं मिला,मिली बस उसकी देहलीला समाप्त होने की खबर,वह भी बड़ी देर से।
गेना के जन्म पर कदरसी का उत्साह और प्राणमोहन बाबू द्वारा गोलत्थी माय के शब्दों में उसके वर्णन में डॉक्टर अमरेंद्र जिस तरह नदी सा उमड़ पड़ते हैं वह उनकी कल्पना की एक अद्भुत मिसाल है।और वर्णन का यही अनोखापन किसी भी पाठक को उपन्यास पूरा पढ़ने के लिए संकल्प कराने के लिए पर्याप्त है।मैं चाहे और कोई अंश उद्धृत न भी करूं,पर वह अंश उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर सकता –
“जैसे फागुन चैत के महीने में गाछ की ठारी पर टूसे निकल आते हैं; और चतुर्दशी के बाद सरंग में पूरा चनरमा हंस पड़ता है;जैसे लड़कौरी बीतने पर जोश मारती हुई जवानी आती है;जैसे भादो के महीने में सूखी चानन नदी में बोहा का पानी उमड़ता है;जैसे लड़कौरी बीतते ही लाज-शरम का आगमन होता है;लाज शर्म के आते ही किशोरी को उनका पिया मिल जाता है;जैसे पिया के मिलते ही युवती सुध-बुध खो बैठती है- किसी तरह से भी उससे सुख का बोझा ढोते नहीं बनता;ठीक वैसे ही,हां ठीक वैसे ही;जैसे सावन में पछिया के उठते ही वर्षा की झकसी शुरु हो जाती है;बेली के खिलते ही उसके रोम-रोम में सुगंध का बास हो जाता है,हां वैसा ही,जैसे योगी की समाधि लगते ही उसे अद्भुत आनंद की प्राप्ति होने लगती है;जैसे धरती के तपते ही अखाड़ बरस पड़ता है;ठीक वही हालत गेना के जनमते कदरसी की भी हो गई थी।” मैं इस अंश को यहीं रोक रहा हूं,जबकि न तो कहते हुए गोलत्थी माय रुकी है,न ही बताते हुए प्राणमोहन बाबू रुके हैं।
इतने उत्साह के बीच जन्मा काला गेना पहले पिता को खोता है,फिर लपकी,यानि मां को और फिर कदरसी को खोकर डोमासी में चला जाता है।
अपने को और हीन समझने लगता है;काम भी तो वैसे ही करता है वह, गंदगी की सफ़ाई।पर हटिया और सड़क की सफ़ाई करने वाला गेना लोगों के मन,हृदय और व्यवहार में उससे अधिक गांधी देखने लगता है और चाहता ही नहीं कहता भी है डंके की चोट पर,कि उन गंदगियों को साफ़ करो।तो जाति,धर्म की गंदगी हट जाएगी और मानवता विचरण करने लगेगी,जो समाज और संसार के लिए अनिवार्य है।
अमरेंद्र जी ने गेना का आंखों देखा रूप बताया है।और उसकी सोच को भी समाज के बारे में,बताया है।मुझे लगा,शायद किसी को भी लग सकता है,कि वहां तो गेना है ही नहीं।वह तो इस उपन्यास का लेखक है जो गेना बन गया है।उसी क्रम में वे पूरा मंदार महात्म्य बखान देते हैं।और ऐसे महत्वपूर्ण स्थल की उपेक्षा से वे जितना तिलमिला रहे हैं,उतना वहां की धूप से नहीं।यों तो अमरेंद्र जी के सारे साहित्य में बौंसी की बदहाली,मंदार का महात्म्य और चांदन की चिंता होती ही है,जो उन्हें ज़मीन से जुड़ा हुआ साहित्यकार बताते हैं।
आगे बढ़ते हैं तो बांका ज़िला का भूगोल बताते हैं।और आसपास के गांव गिनाते हुए, कादरों की बस्तियों का भी पता देते हैं।इस वर्णन से मुझे अचानक विजय हाट के पास का तिलौंधा राइस फार्म याद आ जाता है।कस्तूरी बाई,जो कादरनी थी,उनके मुंह से सुना समय का चक्र याद आता है।याद आते हैं उनके पोते शिव,जो ढोलक अच्छा बजाते थे,उनकी पत्नी और लोकल कादर नेता भैरो कादर।गांव का नाम स्मरण नहीं हो रहा,पर वह फार्म से पूरब में था और चंदाडीह के दक्षिण।
पांचवें खंड में अपने पूर्व प्रसारित रूपक का अंश जिस कुशलता से वे फिट कर लेते हैं,उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाय कम है। हां,एक बात मैं ने ज़रूर देखी है कि,बेशक अमरेंद्र जी अंगिका के शब्दों को हिंदी में प्रयुक्त करने,अर्थात आंचलिक भाषा को तरजीह देने के प्रति सदा से ही सचेष्ट हैं,कृत्संकल्प हैं,पर इस उपन्यास में तो उन्होंने इस संकल्प को सिद्धि तक पहुंचा दिया है,और आंचलिक उपन्यास के पाठकों को फणीश्वर नाथ रेणु का विकल्प मिल जाने का पूरा विश्वास होगा,ऐसा मेरा मन दावा कर उठा है।
आगे समाज में व्याप्त छुआछूत के प्रति चिंता और चिंतन कर अमरेंद्र जी ने फिर मानवतावादी सोच लोगों में भरने की चेष्टा की है,जो उन्हें एक उच्चस्तरीय लेखक बनाने के लिए पर्याप्त है। बौंसी के हूरो झा की दुकान मुझे विजय हाट के हूरो साव की दुकान और उसके मिष्टान्न,नमकीन की भी याद दिला देती है,जो चाचा जी के साथ दो महीने के लगभग उनके फार्म में रहने के दौरान,खासकर हटिया के दिन तो खाता ही था।
सातवें-आठवें खंड में भी गेना की गरीबी को जाड़ के मुकाबले खड़े करते हैं और फिर उसके बौंसी से भागलपुर प्रस्थान के बहाने मजदूरों के बिहार से हरियाणा पंजाब की तरफ़ पलायन की बात करते हैं।कुछ मनोवैज्ञानिक और कुछ दार्शनिक बातें भी करते हैं,सार्थक।
फिर आदमी के उन्माद(जो हमारी पीढ़ी ने अपनी जवानी में दंगे के रूप में देखा है)के बाद के भागलपुर में गेना बना लेखक विषद् सामाजिक, धार्मिक,राजनीतिक चिंतन करता है।…स्थिति से घोर निराशा है।पर भविष्य में सब कुछ मनोनुकूल होने की आशा जीवित है।लेखक को अतीत की सुनहरी यादें भी आती हैं,जिसका विद्रूपित होना सालता है,पर विश्वास का दामन थामे हुए रहते हैं कि सब अच्छा हो जाएगा।अब तक गेना में लेखक व्यक्ति को देखना छोड़ कर समाज को देखना शुरू कर देते हैं,धर्म और आडंबर के सापेक्ष गेना को नहीं समाज को गेना की तरह पीड़ित और ऊबा हुआ देखने लगते है।पर विश्वास से इस चिंता को जीतने में लगे हैं।
आगे,अतीत के अकाल को वर्तमान से जोड़कर और उसे सफाई से अतीत बताकर उपन्यासकार ने गज़ब की चतुराई दिखाई है।एक चतुर किस्सागो के दर्शन होते हैं यहां।…और अंततः गणेशी लैया ने गेना के महाप्रयाण की ख़बर सुना दी।लेखक की,गेना की ख़ोज खत्म हो गई।पर गणेशी बनकर लेखक ने अपने मन की वो सारी बात कह दी जो कहने के लिए उपन्यास गढ़ा गया है।वही बात जिसकी समाज को,राष्ट्र को,विश्व को,मानव समुदाय को अनिवार्य है,पर वह लोभ वश इसे नज़रंदाज़ करता रहता है और लोगों का सुख ही नहीं छीनता है,अपना सच्चा सुख भी गंवा देता है।उपन्यास में साहित्य,मनोविज्ञान और दर्शन की त्रिवेणी के दर्शन होते हैं।गेना और ‘गेना’ का सर्जक पाठक वर्ग को एक अनमोल कृति दे जाता है।
….पूरे उपन्यास में उपमा उपमेय की भरमार है,और एक ही चीज़ की इतनी उपमा देते हैं,जैसे उन्हें संतोष ही नहीं होता कि कुछ और या बहुत कुछ कह दिया।चाहे वह गेना के जन्म के उत्साह की बात हो,चाहे कुछ भी बताने की बात हो।जब वे कहते ही जाते हैं तो मुझे फ़िल्म 1942 ए लव स्टोरी में प्रख्यात पटकथा लेखक,शायर और गीतकार जावेद अख़्तर जी का लिखा वह लोकप्रिय गीत याद आ जाता है –
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, जैसे…,जैसे…,जैसे…,जैसे…,जैसे…!
उपन्यास किसी पात्र की जीवनी नहीं होता।यह महत्त्वपूर्ण नहीं होता कि उसका मुख्य पात्र वास्तविक है या कल्पित।क्योंकि उसे तो काल्पनिक होने पर लेखक ने गढ़ा होता है और वास्तविक होने पर उसे तराशा होता है।उपन्यास तो लेखक की सोच और शोध की पूंजी होता है।और इसीलिए कभी कभी,लेखक की अपनी कोशिश के बाद भी,उसका पात्र अपनी सीमा से आगे निकल जाता है;क्योंकि वहां अपनी उपस्थिति से बेखबर लेखक ख़ुद उपस्थित रहता है। गोलत्थी माय,गेना और गणेशी भी अपनी सीमा से बाहर निकल जाते हैं;डॉक्टर अमरेंद्र हो जाते हैं।और उनकी भाषा,उनकी सोच का स्तर उनसे बहुत ऊंचा दिखने लगता है।हो सकता है कई आलोचकों को यह उस चरित्र का,या रचना का कमज़ोर पक्ष लग जाए,पर मेरी दृष्टि में यह अनिवार्य है;क्योंकि लेखक की अनिवार्यता उसके संदेश का संप्रेषण है।वैसे भी यह उपन्यास ‘गेना’ हिंदी के एक प्रोफेसर,सुपरिचित लेखक का सृजन है और पाठक जानता है कि वह किस लेखक की कृति पढ़ रहा है;उसकी अपेक्षाएं भी उसी अनुरूप हो जाती हैं।

अरुण कुमार पासवान
पूर्व सहायक निदेशक,कार्यक्रम ‌ आकाशवाणी