केवल लिखित साहित्य को ही आधार मानें तो अंगिका भाषा में साहित्य निर्माण की समृध्द परम्परा प्राचीन काल से ही सतत रूप से जारी है, जो प्रामाणिक रूप से पिछले तेरह सौ वर्षों के कालखंडों में बिखरा पड़ा है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार हिन्दी भाषा के लिखित साहित्य का प्राचीनतम स्वरूप ‘अंग’ के प्राचीन सिध्द कवि ‘सरह’ की आठवी सदी में लिखी अंगिका-अपभ्रंश भाषा की रचनाओं में उपलब्ध है. अगर वैदिक संस्कृत में सृजित साहित्य के प्रारंभिक वर्षों को भारतीय भाषाओं में साहित्य लेखन की शुरूआत मानी जाय तो ‘अंगिका’ भाषा में साहित्य निर्माण का कार्य आज से चार हजार वर्ष पूर्व शुरू हो चुका था.
अंगिका में लिखित एवं अलिखित दोनों ही तरह के साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. आज की स्थिति यह है कि अंगिका भाषा का अपना वेब पोर्टल अंगिका.कॉम बर्ष 2003 से अस्तित्व में हैं. साथ ही अंगिका भाषा में गुगल.क़ॉम जैसा विश्व के अव्वल दर्जे का सर्च इंजन भी बर्ष 2004 से उपलब्ध है. किसी भी विकसित भाषा की उत्कृष्टता का पैमाना बन चुके इन सुविधाओं से लैस होकर इंटरनेट क्रांति के इस युग में अंगिका भारत ही नहीं विशव की कुछ चुनिंदा विकसित भाषाओं की श्रेणी में शामिल हो भारत की अन्य भाषाओं को चुनौती देती हुई उन्हें विकास के डेग भरने हेतु उत्साहवध्र्दन में लगी हुई है.
किसी भी साहित्य का वहाँ की संस्कृति से सीधा संबंध होता है. जिस देश की संस्कृति जितनी ही प्राचीन होती है उसमें परंपरा, विश्वास, आस्था और अनुगमन की जड़ें उतनी ही गहरी होती हैं और व्यापक भी. ऐसे समाज में विचार, तर्क, विश्लेषण और अन्वेषण की प्रक्रिया एक ही समय में विविध मानसिक स्तरों पर सतत् जारी रहता हैं. ऐसा समाज नित्य ही आधुनिकता की चुनौतियों को भी आसानी से झेल लेता है. असीम धैर्य ऐसे समाज का संबल होता है. जिसका फल यह होता है कि संसार उसकी, अलग पहचान को अस्वीकार नहीं कर पाता, भले ही इसमें थोड़ा अधिक वक्त जाया हो जाय.
यह तथ्य सर्वविदित है कि प्राचीन भारत के सोलह महाजनपदों में ‘अंग महाजनपद’ भी एक था. प्राचीन काल में यहाँ की प्रचलित भाषा का नाम था – ‘आंगी’. इसका प्राचीनतम उल्लेख वामन जयादित्य द्वारा सातवी सदी में रचित ग्रंथ ‘काशिका वृति’ में मिलता है. पुनः सतरहवीं सदी में सिध्दांतकौमुदी के प्रणेता भट्ठोजी दीक्षित ने भी व्याख्या कर इस तथ्य की पुष्टि की है. कालक्रम में ‘आंगी’ को आंगीकर, देशी भाषा, अंग भाषा, भागलपुरी आदि के नाम से भी जाना गया. डा0 ग्रियर्संन द्वारा तो इसे ‘छिका छिकी’ जैसा अपारम्परिक एवं अवैज्ञानिक नाम भी दिया गया. हालाँकि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने जब से इसका नामकरण कर इसे ‘अंगिका’ कहकर सम्बोधित किया तब से प्राचीन अंग की भाषा ‘आंगी’ आधुनिक युग में ‘अंगिका’ नाम से ही जानी जाने लगी.
अंगिका भाषा की अपनी प्राचीन लिपि का नाम था – अंग लिपि. लगभग पच्चीस सौ बरस पहले लिखे गये बौध्द ग्रंथ ‘ललित विस्तर’ में वर्णित तत्कालीन प्रचलित चौसठ लिपियों में ‘अंग लिपि’ का स्थान चौथा है. भागलपुर जिले के ‘शाहकुंड पहाड़ी पर मिले कुछ ’शिलालेखों तथा कम्बोडिया वियतनाम एवं मले’शिया आदि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में प्राप्त शिलालेखों में ‘अंग-लिपि’ को देखा जा सकता है.
वर्तमान में भारत में अंगिका पाँच करोड़ से भी अधिक जनों की भा है. अंगिका भाषा का प्रभाव क्षेत्र बिहार, झारखंड एवं प’िचम बंगाल के लगभग 58000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है. इसके अलावा मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, बड़ौदा, बंगलोर जैसे नगरों के अलावा भारत के हर कोने में ही अंगिका भाषी निवासित हैं. नेपाल के तराई क्षेत्रों में भी अंगिका बहुलता के साथ बोली जाती है. पाली, चीनी, एवं खमेर आदि साहित्य में इस तथ्य के ढेरों प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह अनुमान लगता है कि कम से कम पहली ई0 से लेकर 1400 ई0 तक और संभवतः इसके पहले और बाद भी कम्बोडिया, वियतनाम एवं मलेशिया आदि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में ‘अंगिका’ भाषा एवं अंग संस्कृति का बोलबाला था.
कालक्रम के हिसाब से अंगिका में साहित्य लेखन की परम्परा को तीन कालखंडों में विभाजित किया जा सकता है – आदिकाल, मध्यकाल एवं आधुनिक काल.
आदिकाल : अंगिका भाषा साहित्य के आदिकाल का समय तेरहवीं सदी तक का है. इसे सिध्दकाल भी कहा जा सकता है, क्योंकि इन कालखंडों में उपलब्ध सभी लिखित रचनायें सिध्द कवियों की है. आदिकाल का अंगिका साहित्य मूलतः भक्ति काव्य का रहा हैं. अंगिका भाषा में प्राचीनतम उपलब्ध लिखित साहित्य आठवीं सदी का हैं. आदिकाल के अंगिका साहित्यकारों में आठवीं सदी के सरह या सरहपा, शबरपा, नवीं सदी के चर्पटीपा, धामपा, मेकोपा, दसवीं सदी के दीपंकर श्रीज्ञान आतिश, ग्यारहवीं सदी के चम्पकपा, चेलुकपा, जयानन्तपा, निर्गुंणपा, लुचिकपा तथा बारहवीं सदी के पुतुलिपा शामिल हैं. इन बारह सिध्द कवियों ने ऐसे कुल बत्तीस ग्रन्थों की रचनायें कीं जो तत्कालीन अंगिका भाषा में हैं. इनमें सरह ने सोलह एवं दीपंकर ने पाँच ग्रंथ अंगिका अपभ्रं’श में लिखे हैं. महापंडित राहुल साकृत्यायन के मतानुसार चैरासी सिध्दों में छत्तीस बिहार के रहनेवाले थे, जिनमें बारह तो सिर्फ अंग जनपद से ही थे. श्री राहुलजी ने सरह को अंग देश का बताते हुए लिखा है कि वे उन चैरासी सिध्दों के आदिपुरूष हैं जिन्होंने लोकभाषा (अंगिका-अपभ्रंश) की अपनी अद्भुत कविताओं तथा विचित्र रहन सहन एवं योग क्रियाओं से वज्रयान को एक सार्वजनिक धर्म बना दिया. इसके पूर्व यह, महायान की भाँति संस्कृत का आश्रय ले, गुप्त रीति से फैल रहा था.
मध्यकाल : मध्यकाल अथवा सिध्दोतर काल चैदहवी सदी से आरम्भ होकर उन्नीसवीं सदी में खत्म होता है. मध्यकाल का अंगिका साहित्य भी मुख्यतः काव्य विधाओं का रहा हैं. अंग देm की प्रमुख लोकगाथा काव्य ‘सती बिहुला’ की रचना इसी काल (सतरहवीं सदी) में हुई. जिसमें मनसा – विषहरी की पूजा केन्द्र बिन्दु हैं. भागलपूर का चम्पानगर बिहुला की गाथा एवं पूजन का प्रधान केन्द्र हैं. अठारहवीं सदी के अंत तक अनुवाद के जरिये कुछ अंगिका गद्य के लिखित रूप भी प्रकाश में आ गए थे. इस काल के साहित्यकारों में प्रमुख है – सोलहवीं सदी के सोनकवि, हेमकवि, सत्रहवीं सदी के कृ”णकवि, भूधर मिश्र, भृगुराम मिश्र, अठारहवीं सदी के किफायत, कुंजनदास, कृ”णाकवि, फादर अंटोनियोकूर, जगन्नाथ, जॉन क्रिश्चयन, लक्ष्मीनाथ परमहंस, वेदानन्द सिंह.
आचार्य शिवपूजन सहाय के मुताबिक इस काल में ऐतिहासिक विपल्वों का प्रभाव अंग देव पर इतना अधिक पड़ा कि बहुत से ग्रंथ भंडारों और प्रजा के विपुल धन का ध्वंस हो गया. यहाँ तक कि मुसलमानी शासन काल के आक्रमणों के अतिरिक्त सन 1857 के सैनिक विद्रोह में भी अनेक गाँव और संग्रहालय नष्ट हो गए. जान पड़ता है कि इसी कारण से अंगिका भाषा के अधिकांश साहित्य और साहित्यकार संबंधी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हो पातीं.
आधुनिक काल : अंगिका साहित्य के आधुनिक काल की शुरूआत बीसवीं सदी से मानी जा सकती है. जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अंग देश की भाषा का नामकरण ‘अंगिका’ होने के बाद श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशु की अध्यक्षता में 1956 ई0 में अंग-भाषा परिषद की स्थापना की गई और उनके साथ श्री गदाधर प्रसाद अम्ब”ठ, महे’वरी सिंह महेश, डा0 परमानन्द पाण्डेय, डा0 नरेश पाण्डेय चकोर, श्री श्रीमोहन मिश्र मधुप जैसे साहित्यकारों ने अंगिका भाषा के उत्थान हेतु अंगिका भाषा आन्दोलन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया.
इसके साथ ही प्रारम्भ हुआ अंगिका के साहित्यकारों द्वारा अंगिका के लोक साहित्य के संकलन का भगीरथ प्रयास. साथ-साथ अंगिका भाषा में आधुनिक साहित्य के लेखन का नया क्रान्तिकारी दौर भी आरम्भ हुआ. परिणाम स्वरूप आज अंगिका में विविध विधाओं की हजारों रचनायें लिखित रूप में उपलब्ध हो चुकी है. लगभग छह सौ साहित्यकार अंगिका साहित्य सृजन में लगे हैं, जिनकी सैकड़ो अंगिका की पुस्तकें प्रका’िात हो चुकी है. दर्जनों पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित हो रही है.
बिहार सरकार की संस्था बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना द्वारा अंगिका संबंधी दो महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पहली पुस्तक 1959 ई0 में प्रकाशित श्री महेश्वरी सिंह महेश रचित ‘अंगिका भाषा और साहित्य है. दूसरी पुस्तक 422 पृ”ठों की ‘अंगिका संस्कार गीत’ है, जिसमें लगभग 500 अंगिका लोकगीत संग्रहीत हैं. इस पुस्तक के सम्पादक हैं – पं0 वैद्यनाथ पांडेय और श्री राधावल्लभ वर्मा.
आधुनिक काल : अंगिका साहित्य के आधुनिक काल की शुरूआत बीसवीं सदी से मानी जा सकती है. जब महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अंग देश की भाषा का नामकरण ‘अंगिका’ होने के बाद श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशु की अध्यक्षता में 1956 ई0 में अंग-भाषा परिषद की स्थापना की गई और उनके साथ श्री गदाधर प्रसाद अम्ब”ठ, महे’वरी सिंह महेश, डा0 परमानन्द पाण्डेय, डा0 नरेश पाण्डेय चकोर, श्री श्रीमोहन मिश्र मधुप जैसे साहित्यकारों ने अंगिका भाषा के उत्थान हेतु अंगिका भाषा आन्दोलन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया.
इसके साथ ही प्रारम्भ हुआ अंगिका के साहित्यकारों द्वारा अंगिका के लोक साहित्य के संकलन का भगीरथ प्रयास. साथ-साथ अंगिका भाषा में आधुनिक साहित्य के लेखन का नया क्रान्तिकारी दौर भी आरम्भ हुआ. परिणाम स्वरूप आज अंगिका में विविध विधाओं की हजारों रचनायें लिखित रूप में उपलब्ध हो चुकी है. लगभग छह सौ साहित्यकार अंगिका साहित्य सृजन में लगे हैं, जिनकी सैकड़ो अंगिका की पुस्तकें प्रका’िात हो चुकी है. दर्जनों पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित हो रही है.
बिहार सरकार की संस्था बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना द्वारा अंगिका संबंधी दो महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पहली पुस्तक 1959 ई0 में प्रकाशित श्री महेश्वरी सिंह महेश रचित ‘अंगिका भाषा और साहित्य है. दूसरी पुस्तक 422 पृ”ठों की ‘अंगिका संस्कार गीत’ है, जिसमें लगभग 500अंगिका लोकगीत संग्रहीत हैं. इस पुस्तक के सम्पादक हैं – पं0 वैद्यनाथ पांडेय और श्री राधावल्लभ वर्मा.
आधुनिक काल में अंगिका भाषा की बहुचर्चित एवं प्रमुख लिखित एवं प्रकाशित साहित्य का विवरण विधाक्रम से अग्रलिखित हैं –
इस वक्त दैनिक जागरण ने ‘अपनो बात’ नामक अंगिका का साप्ताहिक स्तम्भ प्रारंभ किया है जिसे डा0 बहादुर मिश्र नियमित रूप से लिख रहे है.
किसी भी भाषा साहित्य के दो रूप होते हैं – लिखित व अलिखित अथवा मौखिक. वर्तमान परिपाटी के अनुसार भाषा विशेष की वही रचनायें साहित्य अथवा तथाकथित विशिष्ट साहित्य की श्रेणी में आती हैं जो लिखित रूप में मौजूद हों. मौखिक साहित्य को हम विशिष्ट साहित्य न मानकर भाषा विशेष की लोक साहित्य की संज्ञा देकर निश्चिन्त हो जाते है. यह एक विचारणीय विषय है कि केवल लिखित रूप के अभाव में कोई रचना साहित्य का अंग क्यों कर नही बन पाती. साथ ही यह भी कि क्या केवल लिखित रूप में आ जाने मात्र से ही कोई लोक साहित्य, विशिष्ट साहित्य बन कर केवल पृष्ठों तक सीमित हो जाता है? व्यास, बाल्मीकि और होमर ने क्रमशः वेद, रामायण एवं इलियद और ओदेसी जैसे महाकाव्यों की रचना की जो मौखिक ही थे. कबीर, सूर, तुलसी, तथा इतावली के दान्ते, अंग्रेजी के चॉसर और जर्मन के लूथर ने जो रचनायें की वे भी मूलतः अलिखित ही थे. क्या इन रचनाओं को केवल लोकसाहित्य मानकर इनकी उपेक्षा संभव है ?